कुतुबुद्दीन ऐबक मध्य कालीन भारत में एक शासक, दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान एवं गुलाम वंश का स्थापक था। उसने केवल चार वर्ष (1206 –1210) ही शासन किया। वह एक बहुत ही प्रतिभाशाली (क्रूर) सैनिक था जो दास बनकर पहले ग़ोरी साम्राज्य के सुल्तान मुहम्मद ग़ोरी के सैन्य अभियानों का सहायक बना और फिर दिल्ली का सुल्तान।
कुतुबुद्दीन की मृत्यु 1210 में लाहौर में घोड़े से गिरने पर बताई जाती है पर कुतबुद्दीन जो सारे जीवन युद्ध ही करता रहा और जिसके लिए घोड़े की पीठ दूसरे घर के समान थी, वह घोड़े से गिरने मात्र से कैसे मार सकता था?
कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर कर मरा, यह तो सब जानते हैं, लेकिन कैसे?
यह आज हम आपको बताएंगे..
वो वीर महाराणा प्रताप जी का ‘चेतक’ सबको याद है,
लेकिन ‘शुभ्रक’ नहीं! तो मित्रो आज सुनिए कहानी ‘शुभ्रक’ की……
लुटेरे कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, और उदयपुर के ‘राजकुंवर कर्णसिंह’ को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।
कुंवर का ‘शुभ्रक’ नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था, जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।
एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई..
और सजा देने के लिए ‘जन्नत बाग’ में लाया गया।
यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे ‘पोलो’ (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा..
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कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े ‘शुभ्रक’ पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ ‘जन्नत बाग’ में आया।
‘शुभ्रक’ ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे।
जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, तो ‘शुभ्रक’ से रहा नहीं गया.. उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए!
इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए..
मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और ‘शुभ्रक’ पर सवार हो गए। ‘शुभ्रक’ ने हवा से बाजी लगा दी..
लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!
राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे। सिर पर हाथ रखते ही ‘शुभ्रक’ का निष्प्राण शरीर लुढक गया ।
भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता।
क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने राजनीतिक बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं!
वामपंथी इसे नकारते है:
वामपंथियों के अनुसार उपरोक्त कहानी सिर्फ एक कहानी है। इसमें कोई सच्चाई नही है। क्योंकि:
क़ुतुबुद्दीन ऐबक़ के शासनकाल के समय मेवाड़ के राजा मन्थन सिंह (1191–1211) थे। जबकि रण सिंह (कर्ण सिंह-1) का कार्यकाल 1158 से 1168 तक रहा। इन दोनों के दरम्यान क्षेम सिंह, सामन्त सिंह और कुमार सिंह भी मेवाड़ के शासक रहे। मेवाड़ में राणा राजवंश में कर्ण सिंह-2 का शासनकाल 1620 से 1628 तक था। यानी, ये राजा तो क़ुतुबुद्दीन ऐबक़ का समकालीन हो नहीं सकता क्योंकि दोनों के बीच 400 साल का फ़ासला है।
अब यदि ये मान भी लिया जाए कि कर्ण सिंह-1 के पास कोई ‘शुभ्रक’ नाम का घोड़ा था और जिसकी स्वामी भक्ति बेजोड़ थी तो भी उस कर्ण सिंह प्रथम की सामना कभी क़ुतुबुद्दीन ऐबक़ से नहीं हो सकता। क्योंकि दोनों के शासन काल में 32 साल का अन्तर था। लिहाज़ा, शुभ्रक नामक घोड़े की सारी वीरगाथा महज़ एक कपोल-कल्पना है। वैसे भी घोड़े की उम्र 20-25 साल ही होती है।
सच क्या है, आप ही फैसला करे।
परन्तु एक व्यक्ति जिसने सारी उम्र घुड़सवारी की हो, वह सिर्फ घोड़े से गिरने मात्र से नही मर सकता। यह तय है। सवाल नामों का नही सवाल यह है कि छुपाया क्या जा रहा है।