कांग्रेस पार्टी का आत्मघाती जीवन चक्र।
2019 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने सिर्फ 52 सीट के साथ जीत कर अपना दूसरा सबसे बुरा प्रदर्शन किया। उसके अध्यक्ष खुद अपने बल पर अमेठी से हार गए और मुस्लिम बाहर वायनाड से मुस्लिम पार्टी के सहयोग से जीत पाए। जिस पार्टी का अध्यक्ष एक चुनाव क्षेत्र में भी अपने दम पर लोकप्रिय न हो, वह भारत का प्रधान मंत्री हो सकता है? याद आया अगर मनमोहन सिंह हो सकते है तो कोई भी हो सकता है। जरा देखिये इन प्रधानमंत्री को:
26 नवंबर का पाकिस्तानी हमला:
कांग्रेस पार्टी के लिए 2011 कोई बहुत दूर की बात होगी पर इस यूट्यूब के जमाने मे कसाब को कौन नही जानता? कौन नही जानता कि याकूब की फांसी रोकने के लिए भारत के इतिहास में पहली बार रात में अदालत लगी थी। कांग्रेस कह सकती है कि अदालत खुलवाने वालो से उसका कोई संबंध नही है पर जनता मूर्ख नही है। खास तौर पर जब याकूब के पक्षधर वकील रफाल के लिए कांग्रेस के साथ खड़े हो। और तो और वही वकील कांग्रेस के घोषणा पत्र को बनाने में भी मदद कर रहे हो। इस इंटरनेट के युग मे ऐसे सफेद झूठ बोले तो जा सकते है पर माने नही जा सकते।
जब मुम्बई जल रही थी तो राहुल कहाँ थे?
बालाकोट एक हमला नहीं था, यह कांग्रेस के पाकिस्तान से बलिहारी संबंधों का चीर हरड़ था। नेहरू की नीतियों से ले के मनमोहन के मौन का पर्दा फाश था।
कांग्रेस की आत्मघाती पाकिस्तान नीति:
मोरारजी देसाई एक कट्टर कांग्रेसी थे। इंदिरा विरोध में उन्होंने 1977 में जनता पार्टी बना कर चुनाव जीता और सत्ता में आये। सर्व विदित है कि मोरारजी अकेले भारतीय है जिन्हें निशान-ए-पाकिस्तान दिया गया था। ऐटम बेम की जानकारी रा ने उन्हे दी और उन्होने पाकिस्तान को बता दी।
मोरारजी ने पाकिस्तान में पूरे रॉ नेटवर्क को ध्वस्त कर दिया और बाहरी खुफिया एजेंसी को सभी ऑपरेशनों को रोकने का निर्देश दिया क्योंकि उन्हें लगा कि खुफिया ऑपरेशन अनैतिक थे। उनके विदेश मंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघी होने के बावजूद नेहरूवादी ढोंग में रहे और पाकिस्तान के बारे में रोमांटिक धारणाओं को हवा दी। स्वाभाविक रूप से, पाकिस्तानी इन सज्जनों को 1980 में हारते देखकर बहुत दुखी हुए, जिन्होंने पाकिस्तान की अपनी सबसे बड़ी कल्पना से परे पाकिस्तान के हितों की अनजाने में सेवा की।
जब मणिशंकर अय्यर और सलमान खुर्शीद पाकिस्तान जाते हैं और मोदी से छुटकारा पाने के लिए पाकिस्तानी मदद मांगते हैं, तो यह हताशीत आशावादिता है। जब दिग्विजय सिंह 26/11 को आरएसएस की साजिश कहने वालों के साथ खड़े होकर लश्कर-ए-तैयबा के लिए बल्लेबाजी करते हैं और फिर कांग्रेस अध्यक्ष का सबसे करीबी सलाहकार बन जाते है, तो यह सब कृत्य भी कांग्रेस के हो जाते है। जनता के लिए निजी कार्य और पार्टी कार्य मे कोई फर्क नही है।
जब कांग्रेस अध्यक्ष बाटला हाउस एनकाउंटर पर सवाल उठाते हैं और एक अन्य कांग्रेस अध्यक्ष जेएनयू में टुकडे-टुकडे गैंग के साथ खड़ा होता है, डिफेंड करता है, तो यह कांग्रेस की राष्ट्र विरोधी पार्टी और आतंकवादियों के रक्षक के रूप में धारणा को मजबूत करता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा कोई गूढ़ विषय नहीं है। हर दिन, सुरक्षा बल के जवानों के बॉडी बैग देश के हर नुक्कड़ तक जाते हैं। शहीद सैनिकों के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए बड़ी भीड़ उमड़ती है। कोई भी राजनेता जो राजनीतिक प्रवृत्ति का शख्स, समझ सकता है कि इस भीड़ का क्या मतलब है?
लेकिन कांग्रेस इसे समझने में नाकाम रही। वह यह भी नही समझ सकी की आतंकवाद और छद्म युद्धों द्वारा बहाए गए खून ने देश को इस तरह से एकजुट किया है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।
सरकार का समर्थन करने और दुश्मन से सटीक प्रतिशोध के लिए अपने हाथों को मजबूत करने के बजाय, जब कांग्रेस का घोषणापत्र “अभिनव संघीय समाधान” का वादा करता है कि “पेशीवादी आतंकवाद को खत्म करना” और वैधानिक सूत्रीकरण “और अलगाववादियों के लिए “पूर्व-शर्तों के बिना वार्ता” का वादा करता है, यह एक अचूक संकेत भेजता है कि यह एक ऐसी पार्टी है जिसको चुनना भारत के टुकड़े करने के लिए के लिए खुला आमंत्रण होगा। कांग्रेस का 1947 का चेहरा एक बार फिर सामने आ गया जो पहले समस्या को बढ़ाती है और फिर देश बाँट कर सुलझती है।
अपने चुनाव प्रचार विज्ञापन में कांग्रेस पार्टी ने कई भारतीयों को यह कहते हुए दिखाया, “मैं ही तो हिंदुस्तान हूं” इसका स्पष्ट मतलब की भारत एक अरब लोगों के एक अलग अलग विचार है। मोदी के वन इंडिया या एक भारत श्रेष्ठ भारत के खिलाफ, इसे कैसे देखेँगे?
कांग्रेस के पूरे चुनाव अभियान में बहुत बार ऐसा लग की यह चुनाव जीतने के लिए नही अपने को निपटाने के लिए लड़ रही है। ऐसा क्यों हुआ? प्रियंका को तो उसकी नाक दादी से मिलने के कारण उतारा पर जीजाजी को क्यो मैदान में उतार दिया?
कांग्रेस पार्टी ने 2019 के चुनावों में बहुत खराब प्रदर्शन किया है। निश्चित रूप से, पार्टी यह मानने में संकोच कर सकती है ओर सोच सकती है कि उसने काफी अच्छा प्रदर्शन किया। आखिरकार, उसने 2014 के चुनाव से लगभग 15% अधिक सीटें जीतीं। यह भी संभव है कि पार्टी ‘नैतिक जीत’ का दावा करके अपनी अज्ञानतापूर्ण हार पर आलोचना से बचे, जैसा कि हाल ही में एक अन्य दरबारी ने कहा था कि पार्टी ने ‘लोगों का दिल जीत लिया ’।
लेकिन ऐसा करना केवल इस तथ्य को स्थापित करेगा कि शासन की स्वाभाविक पार्टी होने के नाते, कांग्रेस अब एक राजनीतिक पार्टी भी नहीं है।
भाजपा का भगीरथ प्रयास:
आकांक्षा के सबसे बड़े प्रतीक भाजपा की जोड़ी हैं – नरेंद्र मोदी और अमित शाह। दोनों बहुत नीचे से ऊपर उठे हैं अपनी मेहनत के कारण, न कि किसी विरासत के कारण जो उन्हें पार्टी अध्यक्ष और पार्टी बॉस बनने का हकदार बनाता है।
उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत, प्रतिबद्धता और निश्चित रूप से, सक्षमता के माध्यम से ऐसा किया है। शाह ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत एक पार्टी कैडर के रूप में की, जो दीवारों पर पोस्टर चिपकाते थे। मोदी ने एक चाय बेचने वाले के रूप में जीवन शुरू किया और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सेवक के रूप में और बाद में भाजपा में शामिल होके आगे बढ़े ।
योग्यता का उदय
ऐसे पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति को ग्रैंड ओल्ड पार्टी (कांग्रेस) के शीर्ष पर कल्पना करें। असंभव!
राहुल गांधी का त्यागपत्र देना पर किसी का भी उसे न लेना औऱ पार्टी प्रवक्ता का अपनी स्वाभाविक कड़क आवाज जो दम्भ का प्रतीक भी है, यह कहना “राहुल हमारे नेता थे, और है, और रहेंगे” इस बात की पुष्टि कर देता है कि पार्टी अब कहाँ जा रही है। सच तो यह है कि ऐसे व्यक्ति को प्रवक्ता बनाना जिसकी आवाज चोबदार जैसी हो, हास्यापद है।
केवल कांग्रेस या अन्य पारिवारिक पार्टियों में खानदानी उम्मीदवारों की सूची देखें। टिकट पाने के लिए आपको किसी का बेटा या बेटी होना चाहिए। और वे सभी, या कम से कम लगभग सभी को अस्वीकार कर दिया गया था। इस चुनाव में वंशवाद के बाद वंशवाद का अंत हो गया।
दूसरी ओर, भाजपा ने न केवल नेताओं के विचारों से, बल्कि उन सांसदों को भी टिकट देने से इनकार कर दिया जिन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था।
दिवंगत नेताओं मनोहर पर्रिकर और अनंत कुमार के रिश्तेदारों को, छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम रमन सिंह के बेटे को टिकट से वंचित करने का एक गहरा असर हुआ। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके पिता कौन थे या आप किस परिवार से थे। यदि आपने क्षमता और वादा दिखाया, तो आपको पुरस्कृत किया गया; यदि नहीं, तो आपको किसी से अधिक सक्षम और प्रतिबद्ध के लिए रास्ता बनाना था। अगर यह वंश के हक की मौत नहीं है, तो क्या है? लेकिन नामदार को यह नहीं दिखता है।
अगर मतदाताओं में से दो तिहाई 35 वर्ष से कम हैं, तो ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने इंदिरा गांधी को कभी नहीं देखा था और न ही यह राजीव गांधी के आसपास थे। उनके नामों का आह्वान न तो एक राग अलापता है और न ही विषाद का उद्घोष करता है। यदि कुछ भी हो, तो अपने परिवार के नाम पर वोट मांगना अपमान और घृणा को आमंत्रित करता है। घृणा जो इस कार्टून में विदित है:
बेशक, यदि आपके पास अपने क्रेडिट के लिए सिर्फ राजवंश है, तो आप उसे ही बेच सकते हैं, भले उसका अब कोई खरीदार न हो।
पर जिसके घर मे सरकारी मदद से शौचालय बना हो, गैस आयी हो या समूचा घर ही बना हो उस मतदाता के लिए फैसला करना बिल्कुल आसान था।
लेख बहुत ही अच्छा है …
सारी बातें कार्टून ने कह दी है …
✍️😎✌️
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