भारतीय राजनीति का सच।

राजनीति या व्यवसाय:

भारत मे राजनितीक पार्टिया तो मानो किसी व्यावसायिक कंपनी जैसी हो गई है। जैसे आम जनता को जहा ज्यादा सैलरी पैकेज मिलता है वो उस कंपनी का रुख कर लेते है। वैसे ही राजनेताओ को जहा ज्यादा प्रॉफिट मिले वहां चल देते है। चाहे जगह हो या पार्टी, बदलने में कोई हिचकिचाहट नहीं है। सिध्ढू हो या उदित राज, भाजपा हो या कांग्रेस। कांशीराम महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश आ गए और राहुल गांधी उत्तर प्रदेश से वायनाड केरल जा रहे है।

सिद्धान्तों की न तो कोई जरूरत है ना उसका कोई विचार। सिद्धान्त तो कंपनी के मेमोरेंडम एंड आर्टिकल की तरह लिख कर दाखिल दफ्तर कर देते है। बाकी जनता तो मूरख है ही आज नही तो कल इन्हें वोट दे ही देंगी।

मुनाफे के स्रोत:

सबसे दिलचस्प इन राजनीतिक कंपनियों के आय के स्रोत। यह कंपनियां जनता को सपने बेचती हैं बदले में सत्ता प्राप्त करती हैं।

सत्ता एक पैसा पैदा करने की मशीन की तरह है जिस में काला धन प्रचुर मात्रा में सत्तासीन रहते हुए प्राप्त होता है।

यदि सत्ता हाथ से निकल भी जाए तो भी कई अन्य सूत्रों से भी कुछ पैसा कमाया जा सकता है। पैसे कमाने का एक अन्य सुलभ साधन विधायक व सांसदों के टिकट बेचना है।

अगर किसी व्यक्ति को किसी खास चुनाव चिन्ह से चुनाव लड़ना है तो उसे उस चुनाव चिन्ह के मालिक को पैसा देना होगा। यह उसी प्रकार है जिस तरह ट्रेडमार्क सवाल करने के लिए लाइसेंस फी देनी होती है अलबत्ता यह कतई गैरकानूनी है।

प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि उन्होंने 3 लाख शैल या जाली कंपनी बंद कर दी पर उन 3000 जाली चुनाव की कंपनियों का क्या होगा जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए चल रही है। जिन का चुनाव की प्रक्रिया सिर्फ नाम मात्र का ही साथ है।

क्या इन चुनावी व्यावसायिक पार्टियों पर कभी रोक लगेगी?

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